Tuesday, September 5, 2017

गुरु विरजानन्द प्रश्नोत्तरी.

शिक्षक दिवस पर स्वामी दयानंद जी के महान गुरु स्वामी विरजानंद दंडी जी को नमन.
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1. गुरू विरजानन्द का जन्म कब और कहाँ हुआ?
गुरु विरजानन्द का जन्म सम्वत् 1835 वि. (सन् 1778 ई.) में पंजाब के कतीरपुर नगर के निकट बुई नदी के किनारे गंगापुर नामक गाँव में हुआ था।
2. विरजानन्द के पिता का नाम क्या था?
विरजानन्द के पिता का नाम श्री नारायण दत्त था, ये भारद्वाज गोत्री सारस्वत ब्राह्मम थे।
3. विरजानन्द स्वामी और किन नामों से प्रसिद्ध थे?
विरजानन्द स्वामी प्रज्ञाचक्षु स्वामी, सूरदास स्वामी, धृतराष्ट्र और दपडी जी महाराज आदि नामों से प्रसिद्ध थे।
4. विरजानन्द को प्रज्ञाचक्षु क्यों कहाँ जाता है?
विरजानन्द को पाँच वर्ष की अवस्था में शीतला रोग हुआ। जिसके कारण उनकी दोनों आंखें खराब हो गई और वे अन्धे हो गए। परन्तु आगे चल कर वे बहुत बड़े विद्वान हो गए थे। इसीलिए उन्हें प्रज्ञाचक्षु कहा जाता है।
5. विरजानन्द की शिक्षा किस प्रकार प्रारम्भ हुई?
विरजानन्द की शिक्षा घर पर ही प्रारंभ हुई और इन्होंने अपने पिता से 8 वर्ष की अवस्था में व्याकरण पढ़ना प्रारंभ किया।
6. विरजानन्द को बचपन में ही घर क्यों छोड़ना पड़ा?
विरजानन्द के बचपन में ही उनके माता-पिता का देहान्त हो गया घर में बड़े भाई थे। परनतु बड़े भाई का व्यवहार अन्धे छोटे भाई के प्रति बड़ा कठोर था। बड़े भाई के असहनीय कठोर व्यवहार के कारण ही विरजानन्द को घर छोड़ना पड़ा।
7. जब विरजानन्द ने घर छोड़ा उनकी अवस्था कितनी थी?
जब विरजानन्द ने घर छोड़ा उनकी अवस्था 14 वर्ष की थी।
8. घर छोड़ कर विरजानन्द कहाँ गए?
घर छोड़ कर विरजानन्द ऋषिकेश गए।
9. ऋषिकेश में विरजानन्द की दिनचर्या क्या थी?
नित्यकर्म, गंगा में स्नानादि से निवृत्त होकर वे गायत्री का जाप घण्टों किया करते थे। कन्दमूल आदि खा कर अपना गुजारा करते थे।
10. विरजानन्द ने संन्यास आश्रम में किस प्रकार प्रवेश किया? कब?
ऋषिकेश से चल कर विरजानन्द कनरवल पहँुचे। वहाँ संन्यासी पूर्णाश्रम में भेंट हुई। विरजानन्द ने उन्हीं से संन्यास की दीक्षा ली और स्वामी विरजानन्द कहलाए।
11. कौमुदी का अध्ययन इन्होंने कब किया?
इन्होंने कौमुदी का अध्ययन कनरवल में ही किया। कौमुदी व्याकरण के सूत्रों को अर्थ सहित सुन कर इन्होंने कंठस्थ कर लिया था।
12. कनरवल से स्वामी विरजानन्द कहाँ गए?
स्वामी जी कनरवल से काशी गए।
13. काशी में स्वामी विरजानन्द ने किस से क्या पढ़ा?
काशी में स्वामी विरजानन्द ने विद्याघर पण्डित से व्याकरण पढ़ा।
14. पढ़ने के अतिरिक्तआप क्या करते थे?
पढ़ने के अतिरिक्त आप विद्यार्थियों को पढ़ाते भी थे। आप के पढ़ाने का ढंग इतना अच्छा था कि इनके पास बहुत से विद्यार्थी पढ़ने आने लगे।
15. काशी से चल कर विरजानन्द कहाँ गए?
काशी से चल कर विरजानन्द गया, कलकत्ता और सोरो गए।
16. गुरु विरजानन्द की भेंट अलवर नरेश से किस प्रकार हुई?
एक दिन गंगा में खड़े होकर विरजानन्द स्त्रोत पढ़ रहे थे। अलवर नरेश विनय सिंह इनका सुललित स्पष्ट उच्चारण सुन कर बड़े प्रभावित हुए। अतः इनके निवास स्थान पर जा कर इनसे अलवर चलने का अनुरोध करने लगे।
17. गुरु विरजानन्द ने अलवर नरेश के किस आश्वासन पर उनके यहाँ जाना स्वीकार्य किया?
गुरु विरजानन्द ने अलवर नरेश के इस आश्वासन पर कि- ‘‘मैं आप के पास नित्य नियम पूर्वक अध्ययन करूंगा’’ उनके यहां जाना स्वीकार्य किया।
18. गुरु विरजानन्द ने अलवर क्या छोड़ा?
तीन-चार वर्ष अलवर में रहने के बाद अलवर नरेश के पाखंड में विश्वास के कारण विरजानन्द की अलवर में रहने की इच्छा न रही। इस बीच एक दिन अलवर नरेश समय पर पढ़ने के लिये न आ सके और उनकी नित्य की पढ़ने की प्रक्रिया भंग हो गई। अतः गुरु विरजानन्द ने अलवर छोड़ दिया।
19. अलवर से चलकर गुरु विरजानन्द कहां गए?
अलवर से चलकर गुरु विरजानन्द सोरों, मुरसान और भरतपुरी होते हुये मथुरा पहँुचे।
20. मथुरा में विरजानन्द ने पाठशाला की व्यवस्था किस प्रकार की?
मथुरा में गुरु विरजानन्द ने एक मकान किराए पर लेकर पाठशाला चलानी शुरु कर दी। पढ़ाई निःशुल्क होती थी। पाठशाला कार्य के लिये कुछ नौकर भी रखे गये। पाठशाला के लिये अलवर, जयपुर और भरतपुरी राज्य से धन की सहायता मिलती थी।
21. मथुरा में क्या विशेष घटना घटी?
मथुरा में व्याकरण का विषय लेकर गुरु विरजानन्द और कृष्ण शास्त्री में शास्त्रार्थ हुआ। जिसमें कृष्ण शास्त्री का पक्ष कमजोर होने पर सेठ राधाकृष्णन ने कृष्ण शास्त्री को जीतने के लिये छल-कपट का पूरा सहारा लिया और अपने धन से काशी के पंडितों के पास से कृष्ण शास्त्री के पक्ष में व्याकरण खरीद लाए।
22. काशी के पंडितों की गलत व्यवस्था देने पर गुरु विरजानन्द ने क्या किया?
काशी के पंडितों ने गलत व्यवस्था देने पर गुरु विरजानन्द ने काशी के पंडितों के पास एक पत्र भेजा और पूछा कि- काशी के पंडितों ने जो व्यवस्था दी है उसका क्या प्रमाण है? क्या आधार है?
23. विरजानन्द के पत्र का क्या प्रभाव पड़ा?
विरजानन्द का पत्र पाकर काशी के पंडितों में खलबली मच गई। उन्हें लिखना पढ़ा कि वास्तव में आपका पक्ष ठीक है किन्तु हम पहले कृष्ण शास्त्री का पक्ष अनु-मोदित कर चुके हैं। अतः मजबूर हैं।
24. इस घटना का विरजानन्द पर क्या प्रभाव पड़ा?
अब गुरुविरजानन्द व्याकरण पर और ध्यान देने लगे। जिससे उन्हें ये भली भांति निश्चय हो गया कि कौमुदी, मनोरमा, शेखर आदि व्याकरण भ्रम युक्त और प्रमादपूर्ण हैं। अष्टाध्यायी तथा महाभाष्य ही व्याकरण के उत्तम ग्रंथ हैं।
25. विरजानन्द के आर्ष ग्रंथों की क्या पहचान बतलाई?
विरजानन्द के आर्ष ग्रंथों की पहचान बतलाई (1) ऋषियों के बताये ग्रंथ ओम या अर्थ से प्रभाव प्रारंभ होते हैं। (2) आर्ष ग्रंथों में किसी के प्रति दुर्भावना, विद्वेष आदि नहीं होते हैं- इनमें सार्वभौमिकता होती है। (3) जिस ग्रंथ का भाष्य किसी प्रसिद्ध आचार्य ने लिखा हो वह आर्ष ग्रंथ है। ये तीन मुख्य लक्षण हैं। सूक्ष्म लक्षण और भी हैं।
26. गुरु विरजानन्द का अपने शिष्यों से कैसा संबंध था?
गुरु विरजानन्द का अपने शिष्यों से पुत्रव्रत संबंध था। वे अपने शिष्यों के कष्टों का बराबर ध्यान रखते थे तथा उनके आचरण की देखरेख भी रखते थे।
27. विरजानन्द की पाठशाला में प्रवेश के क्या नियम थे?
विरजानन्द की पाठशाला में प्रवेश के लिये दो नियम थे (1) वे स्वयं विद्यार्थी की परीक्षा लेते थे, कि उसकी स्मरण शक्ति कैसी है (2) वे विद्यार्थी से पूछते थे कि, उसने अब तक क्या पढ़ा है। अगर विद्यार्थी मनुष्य कृत ग्रंथों को पढ़ा हो तो उस विद्या को भूल जाने को और उन ग्रंथों को पानी में बहा देने की आज्ञा देते थे।
28. 1917 विक्रमी (1860 ई.) में विरजानन्द को किस रत्न की प्राप्ति हुई?
1917 विक्रमी 1860 ई. में विरजानन्द को दयानन्द सरस्वती नामक उस अमूल्य रत्न की प्राप्ति हुई जिसने अपने गुरु की इच्छाओं को पूर्ण करने में सारा जीवन लगा दिया। और महर्षि दयानन्द बनकर पूरी आभा के सारा संसार में चमकने लगा।
29. विरजानन्द ने दयानन्द को सबसे पहले क्या पढ़ाना आरम्भ किया?
विरजानन्द ने दयानन्द को सबसे पहले अष्टाध्यायी और महाभाष्य पढ़ाना आरम्भ किया।
30. शिष्य दयानन्द की शिक्षा पूरी होने पर गुरु विरजानन्द ने शिष्य से गुरु दक्षिणा के रूप में क्या मांगा?
शिष्य दयानन्द की शिक्षा पूरी होने पर गुरु विरजानन्द ने शिष्य से गुरु दक्षिणा मांगते हुए कहा- मैं तुम से तुम्हारे जीवन की दक्षिणा चाहता हँू। प्रतिज्ञा करो कि आर्यव्रत में आर्ष ग्रन्थों की महिमा स्थापित करोगे। अनार्ष ग्रन्थों का खंडन करोगे और भारत में वैदिक धर्म की स्थापना में अपने प्राण तक अर्पित कर दोगे।
31. गुरु विरजानन्द आर्य जाति के पतन का क्या कारण बतलाते थे?
संस्कृत के आधुनिक ग्रन्थ जो समाज में धर्म ग्रन्थ के नाम से प्रसिद्ध हैं उन्हीं को गुरु विरजानन्द आर्य जाति के पतन का कारण मानते थे।
32. प्रज्ञाचक्षु गुरु विरजानन्द का देहांत कब हुआ?
प्रज्ञाचक्षु गुरु विरजानन्द का देहांत क्वार बदी 13 सम्वत् 1925 विक्रमी को हुआ।
33. गुरु विरजानन्द की मृत्यु पर स्वामी दयानन्द ने कया कहा था?
गुरु विरजानन्द की मृत्यु पर स्वामी दयानन्द ने कहा था- आज व्याकरण का सूर्य अस्त हो गया।
लेखक : पंडित चिंतामणि वर्मा, म्यांमार

Monday, September 4, 2017

कौन सी धातु के बर्तन में भोजन करें।

                        *सोना*

सोना एक गर्म धातु है। सोने से बने पात्र में भोजन बनाने और करने से शरीर के आन्तरिक और बाहरी दोनों हिस्से कठोर, बलवान, ताकतवर और मजबूत बनते है और साथ साथ सोना आँखों की रौशनी बढ़ता है।

                        *चाँदी*

चाँदी एक ठंडी धातु है, जो शरीर को आंतरिक ठंडक पहुंचाती है। शरीर को शांत रखती है  इसके पात्र में भोजन बनाने और करने से दिमाग तेज होता है, आँखों स्वस्थ रहती है, आँखों की रौशनी बढती है और इसके अलावा पित्तदोष, कफ और वायुदोष को नियंत्रित रहता है।

                           *कांसा*

काँसे के बर्तन में खाना खाने से बुद्धि तेज होती है, रक्त में  शुद्धता आती है, रक्तपित शांत रहता है और भूख बढ़ाती है। लेकिन काँसे के बर्तन में खट्टी चीजे नहीं परोसनी चाहिए खट्टी चीजे इस धातु से क्रिया करके विषैली हो जाती है जो नुकसान देती है। कांसे के बर्तन में खाना बनाने से केवल ३ प्रतिशत ही पोषक तत्व नष्ट होते हैं।

                         *तांबा*

तांबे के बर्तन में रखा पानी पीने से व्यक्ति रोग मुक्त बनता है, रक्त शुद्ध होता है, स्मरण-शक्ति अच्छी होती है, लीवर संबंधी समस्या दूर होती है, तांबे का पानी शरीर के विषैले तत्वों को खत्म कर देता है इसलिए इस पात्र में रखा पानी स्वास्थ्य के लिए उत्तम होता है. तांबे के बर्तन में दूध नहीं पीना चाहिए इससे शरीर को नुकसान होता है।

                        *पीतल*

पीतल के बर्तन में भोजन पकाने और करने से कृमि रोग, कफ और वायुदोष की बीमारी नहीं होती। पीतल के बर्तन में खाना बनाने से केवल ७ प्रतिशत पोषक तत्व नष्ट होते हैं।

                         *लोहा*

लोहे के बर्तन में बने भोजन खाने से  शरीर  की  शक्ति बढती है, लोह्तत्व शरीर में जरूरी पोषक तत्वों को बढ़ता है। लोहा कई रोग को खत्म करता है, पांडू रोग मिटाता है, शरीर में सूजन और  पीलापन नहीं आने देता, कामला रोग को खत्म करता है, और पीलिया रोग को दूर रखता है. लेकिन लोहे के बर्तन में खाना नहीं खाना चाहिए क्योंकि इसमें खाना खाने से बुद्धि कम होती है और दिमाग का नाश होता है। लोहे के पात्र में दूध पीना अच्छा होता है।

                         *स्टील*

स्टील के बर्तन नुक्सान दायक नहीं होते क्योंकि ये ना ही गर्म से क्रिया करते है और ना ही अम्ल से. इसलिए नुक्सान नहीं होता है. इसमें खाना बनाने और खाने से शरीर को कोई फायदा नहीं पहुँचता तो नुक्सान भी  नहीं पहुँचता।

                      *एलुमिनियम*

एल्युमिनिय बोक्साईट का बना होता है। इसमें बने खाने से शरीर को सिर्फ नुक्सान होता है। यह आयरन और कैल्शियम को सोखता है इसलिए इससे बने पात्र का उपयोग नहीं करना चाहिए। इससे हड्डियां कमजोर होती है. मानसिक बीमारियाँ होती है, लीवर और नर्वस सिस्टम को क्षति पहुंचती है। उसके साथ साथ किडनी फेल होना, टी बी, अस्थमा, दमा, बात रोग, शुगर जैसी गंभीर बीमारियाँ होती है। एलुमिनियम के प्रेशर कूकर से खाना बनाने से 87 प्रतिशत पोषक तत्व खत्म हो जाते हैं।

                           *मिट्टी*

मिट्टी के बर्तनों में खाना पकाने से ऐसे पोषक तत्व मिलते हैं, जो हर बीमारी को शरीर से दूर रखते थे। इस बात को अब आधुनिक विज्ञान भी साबित कर चुका है कि मिट्टी के बर्तनों में खाना बनाने से शरीर के कई तरह के रोग ठीक होते हैं। आयुर्वेद के अनुसार, अगर भोजन को पौष्टिक और स्वादिष्ट बनाना है तो उसे धीरे-धीरे ही पकना चाहिए। भले ही मिट्टी के बर्तनों में खाना बनने में वक़्त थोड़ा ज्यादा लगता है, लेकिन इससे सेहत को पूरा लाभ मिलता है। दूध और दूध से बने उत्पादों के लिए सबसे उपयुक्त है मिट्टी के बर्तन। मिट्टी के बर्तन में खाना बनाने से पूरे १०० प्रतिशत पोषक तत्व मिलते हैं। और यदि मिट्टी के बर्तन में खाना खाया जाए तो उसका अलग से स्वाद भी आता है।