Friday, January 8, 2016

अपनी मातृभाषा...

हम अपनी मातृभाषा में बोलने से हिचकते
हैं। बेइज्जती महसूस करते हैं। देश का एक बड़ा तबका
इसी बीमारी से ग्रस्त है। उसे अंग्रेजी पढ़ने, बोलने व
सुनने पर नाज है तथा हिन्दी या अन्य भारतीय
भाषा बोलने-सुनने में लज्जा आती है। विश्व
इतिहास गवाह है कि कोई भी क्रांति या वैचारिक
परिवर्तन तभी हुआ, जब कोई ग्रंथ वहां की
मातृभाषा में लिखा गया। वैचारिक आंदोलन का
सूत्रपात भी तभी हुआ, जब मातृभाषा को महत्व
मिला। चाहे धर्म का क्षेत्र हो, सामाजिक क्रांति
का क्षेत्र हो, भक्ति का क्षेत्र हो, शिक्षा का
क्षेत्र हो या फिर साहित्य रचना का क्षेत्र-इन
सभी क्षेत्रों में परिवर्तन की बयार तभी बही, जब
उनकी रचना मातृभाषा में हुई। विज्ञान के क्षेत्र में
परिवर्तन की चाह रखने वाले वैज्ञानिकों, समाज में
सकारात्मकता लाने का प्रयास करने वाले
साहित्यकारों, विचारकों और यहां तक कि कुछ बड़े
राजनयिकों ने भी इसे स्वीकारा है। अनेक शोधों के
आधार पर संयुक्त राष्ट्र संघ भी इस विचार से सहमत
है कि मातृभाषा में दी जाने वाली शिक्षा ही
बालमन को दिशा देने में सक्षम है। अगर बालक को
मातृभाषा में शिक्षा दिया जाए तो उसके ग्रहण
करने की शक्ति 6 गुनी बढ़ जाती है। फिर हम इस
तथ्य से क्यों नहीं सहमत हैं? भाषा को आधार
बनाकर समय-समय पर आपस में क्यों लड़ते रहते हैं।
वैदिक काल में लिखी गई रामायण जब तुलसीदास ने
अवधी में लिखा तो वह जनमानस में रच-बस गई।
कालिदास की सभी रचनाओं (तत्कालीन समय में
बहुतायत में पढ़ी-लिखी व बोली जाने वाली संस्कृत)
को लोगों ने स्वीकार किया। फिर हम भारतीय
अंग्रेजी के पीछे क्यों भाग रहे हैं? हमें ऐसा क्यों
लगता है कि अंग्रेजी भाषा को जाने बिना कोई
बड़ा कार्य नहीं कर सकते? अंग्रेजी बोलने-समझने
वाले ही समाज में उच्च स्थान पाते हैं और आदर की
दृष्टि से देखे जाते हैं? नौकरी भी उन्हें मिलती है
जिन्हें फर्राटेदार अंग्रेजी बोलना आती है? हमें इस
संकुचित मानसिकता से बाहर आना होगा। खुद
द्वारा अर्जित उपलब्धियों पर नाज करना सीखना
होगा। यह विश्चास पूर्वक कहना होगा कि गणित
व विज्ञान की पढ़ाई के लिए अंग्रेजी भाषा का
ज्ञान जरूरी है। क्या उज्जैन के गणिताचार्य
ब्रह्मगुप्त (558-660 ई.), पटना (बिहार) के पास
कुसुमपुर के आर्यभट्ट, नवीं शताब्दि पूर्वार्द्ध के मैसूर
के महावीर और बारहवीं शताब्दि मध्यकाल
महाराष्ट्र के सह्याद्रि क्षेत्र निवासी
भाष्कराचार्य ने गणित के ज्ञान से विश्व को
परिचित नहीं कराया? इस ज्ञान को प्राप्त करने के
लिए क्या इन्होंने अंग्रेजी भाषा का सहारा लिया
था? कतई नहीं, इन सभी गणितज्ञों ने अपनी
मातृभाषा में शोध किए और पुस्तकें लिखीं। ज्ञान
भी बंटा तो अपनी मातृभाषा में ही, फिर
भारतीयों के मन शंका क्यों? अभी कुछ दिनों पहले
उत्तराखंड के रुढ़की के एक संस्थान से 50 छात्रों को
केवल इस आधार शिक्षा ग्रहण करने से रोक दिया
गया कि उन्हें अंग्रेजी नहीं आती है और वे लगातार
फेल हो रहे हैं। फिर उन्हें उनकी मातृभाषा में शिक्षा
देने का प्रबंध करने के लिए सरकार पर दबाव क्यों
नहीं बनाता? आखिर भारतीय भाषाओं की उपेक्षा
हम कब तक करते रहेंगे? हमें इस बात को अपने जेहन में
बिठा लेना होगा कि जो बच्चा मातृभाषा के
महत्व को समझेगा, उसमें ज्ञान अर्जित करेगा, वही
भविष्य का 'महात्मा गांधी', 'सुभाषचंद्र बोस',
'खुदीराम', 'स्वातंत्र्य वीर सावरकर', 'स्वामी
विवेकानन्द', और 'डाॅ. अब्दुल कलाम' बनेगा।
बांग्लाभाषी रवींद्रनाथ टैगोर को मिलने वाला
नाबेल पुरस्कार हो या फिर बंकिमचंद्र के आनन्दमठ
से स्वतंत्रता की लड़ाई में भारतीयों को एकजुट करने
की शक्ति, सब कुछ मातृभाषा के महत्व से मिलने
वाली शक्ति से ही तो संभव हुआ था। गुजराती के
बलवंत राय, सुन्दरम और मेघाणी जैसे कवियों की
रचनाओं ने अपनी अपनी मातृभाषाओं में ही
आजादी का शंखनाद किया तो क्या भारत के हर
क्षेत्र में रहने वाला देशवासी क्षेत्रवाद एवं
भाषावाद को भूलकर एकजुटता नहीं दिखाया था?
शायद यह ीवह समय था जब अंग्रेजों को पहली बार
भारतीयों की शक्ति का भान हुआ। बावजूद इसके
आज भी हम भारतीयों को मानसिक रूप से गुलाम
बनाने की मंशा रखने वाले 'लार्ड मैकाले' की
शिक्षा पद्धति के फेर में उलझे हैं। कुछ अनुमानों के
आधार पर बौद्ध धर्म के अनुयायी विश्व में सर्वाधिक
हैं। कुछ लोग ईसाई धर्म के अनुयायियों की संख्या
सर्वाधिक मानते हैं। हम इस विवाद न पड़कर एक बात
पर गौर करें। ईसाई धर्म की पुस्तक 'बाइबिल' की
रचना 'अंग्रेजी' में नहीं, 'हिब्रू' में हुई। बौद्ध धर्म की
शिक्षा देने वाली सभी पुस्तकें 'पाॅलि' भाषा में हैं।
22 देशों में 'इस्लाम' का बोलबाला है। 50 अन्य देशों
में इस्लामिक लोग बहुतायत में हैं। बावजूद इसके 'कुरान
शरीफ', 'हदीस' की रचना 'अरबी' या 'फारसी' में हुई
है। सबसे पुराना धर्म 'हिन्दू' है। इसके धर्मग्रंथ 'वेद',
'पुराण', 'आरण्यक', 'उपनिषद', 'दर्शन' आदि 'अंग्रेजी' में
नहीं (बहुतायत में बोली-समझी जाने वाली
तत्कालीन भाषा) संस्कृत में हैं। हमें याद करना होगा
कि संतों, महात्माओं और चिन्तकों ने अपनी भक्ति
रचनाओं, सूफी कवियों ने प्रेमाख्यानों से जनता में
प्रेम का भाव प्रस्फुटित किया। गुरुनानक, कबीर,
रैदास, रहीम, तुलसीदास, दाउद, आदि हिन्दी युग
की देन रहे तो तमिल भाषा के कंबन, कन्नड़ के कुमार
बाल्मीकि, उड़िया के कपिलंेद्र एवं अर्जुनदास ने भी
भगवान राम का गुणगान अपनी मातृभाषा में किया
था। बंगाल में चैतन्य महाप्रभु, कर्नाटक में पुरन्दरदास
और उड़ीसा में पंच-वैष्णव के भक्ति स्वर में जनमानस
डूबता-उतराता रहा। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए
कि 15 वीं शताब्दि में असम के शंकरदेव ने समाज में
व्याप्त बुराइयों के विरुद्ध आवाज उठाई तो पूरा
जनमानस पैदल ही उनके साथ हो लिया। क्या यहां
कोई बोली, भाषा या किसी अन्य समस्या ने लोक
संवाद को रोका? मीरा ने हिन्दी भाषियों को
भगवान कृष्ण का गुणगान सिखाया तो क्या कांडा
को मीरा प्रतिमूर्ति कहकर यह स्वीकार नहीं
किया गया कि वह भी कृष्ण भक्त हैं। भगवान कृष्ण
की कोई भी वस्तु मिलने पर विराहाग्नि शांत होने
की बात कहने वाली कांडा ने क्या अपनी
मातृभाषा में रचनाएं नहीं कीं? क्या दक्षिण के
बल्लभाचार्य नहीं होते तो उत्तर के सूरदास को
कृष्ण से साक्षात्कार होता? शायद ऐसा नहीं
होता। यह तभी संभव हुआ जब दक्षिण से उत्तर और
उत्तर से दक्षिण तक की संस्कृति को मातृ-भाषा ने
एकरूपता दी। फिर हम आज मातृभाषा की उपेक्षा
क्यों कर रहे हैं? न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत को
समझाने के लिए 'लैटिन' भाषा का सहारा लिया।
आइंस्टीन ने भी अपने ग्रंथ को जर्मन में लिखना ही
उचित समझा। साहित्यकार बर्नाड शाॅ की सभी
रचनाएं उनकी मातृभाषा में हैं जबकि वे खुद स्काॅटलैंड
के थे। क्या हम नहीं जानते हैं कि स्काॅटलैंड की संसद
में अंग्रेजी में बोलने वाले को आज भी कान पकड़कर
बाहर कर दिया जाता है। इन सभी को ख्याति
तभी मिली जब इनके द्वारा अपनी मातृभाषा को
सम्मान दिया गया और उसे अपनाते हुए मन के भावों,
अनुभवों और शोधों को सबके सामने रखा गया। हम
भारतीयों को यह बात समझनी होगी। अब हमें इन
मनीषियों एवं उनके प्रयासों का स्मरण करना
होगा। दिखाए पदचिह्नों पर चलते हुए 'एक भारत,
श्रेष्ठ भारत' बनाने की ओर बढ़ने का संकल्प लेना
होगा। मातृभाषा की शक्ति को हमें एक बार फिर
पहचानना होगा। देश के विकास में मौलिक चिन्तन
वाले युवाओं की खेप तैयार करनी होगी। जब हम
ऐसा करेंगे तभी युवाओं में देश के प्रति प्रेम का भाव
जगेगा। मातृभूमि और भाषा के प्रति सम्मान
आएगा। भारत में नया बिहान होगा और चारों ओर
खुशहाली आएगी। यह खुशहाली राजनैतिक,
सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक, धार्मिक और विश्व-
कल्याण के क्षेत्र में भी होगी। आइए, हम आज ही
संकल्प लें कि सभी भारतीय भाषाओं के सम्मान के
लिए हम अपने बच्चों को उनकी मातृभाषा में ही
शिक्षा दिलायेंगे। बालमन को समझेंगे। उनमें स्वतंत्र
रूप से उड़ान भरने और कुलाचें मारने का भाव भरेंगे।

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