Thursday, September 3, 2015

क्या महर्षि मनु शूद्र विरोधी थे......????

मनुस्मृति वेदों के बाद हिन्दुओं का सबसे प्राचीन धर्मग्रंथ है। सन् 1932 में जापान के एक बम-विस्फोट से चीन की ऐतिहासिक दीवार का एक हिस्सा टूट गया था। टूटे हुए इस हिस्से से लोहे का एक ट्रंक मिला जिसमें चीनी भाषा में प्राचीन पांडुलिपियां भरी हुई थीं। ये पांडुलिपियां सर आगस्टस रिट्ज (Sir Augustus Fritz) के हाथ लग गईं। चीनी भाषा के उन हस्तलेखों में से एक में लिखा है ‍कि मनु का धर्मशास्त्र भारत में सर्वाधिक मान्य है, जो वैदिक संस्कृत में लिखा है और 10,000 वर्ष से अधिक पुराना है।इस दीवार के बनने का समय लगभग 220 से 206 ईसा पूर्व का था यानी 220+10,000= 10,220 ईसा पूर्व मनुस्मृति लिखी गई अर्थात आज से दस हजार वर्ष पहले मनुस्मृति भारत में पढ़ने के लिए उपलब्ध थी।
नारद-स्मृति में आया है कि मनु ने 1,00,000 श्लोकों, 1080 अध्यायों एवं 24 प्रकरणों में एक धर्मशास्त्र लिखा और उसे नारद को पढ़ाया, जिन्होनें उसे 12,000 श्लोकों में संक्षिप्त किया और मार्कण्डेय को पढ़ाया। मार्कण्डेय ने भी इसे 8,000 श्लोकों में संक्षिप्त कर सुमति भार्गव को दिया, जिन्होंने स्वयं उसे 4,000 श्लोकों में संक्षिप्त किया। भारत में मनुस्मृति का सर्वप्रथम मुद्रण 1813 ई॰ में कलकत्ता में हुआ था। 2694 श्लोकों का यह ग्रंथ 12 अध्यायों में विभक्त है। मनुस्मृति जो संसार में नीति और धर्म ( कानून) का निर्धारण करने वाला सबसे पहला ग्रंथ माना गया है उस को घोर जाति प्रथा को बढ़ावा देने वाला भी बताया जाता रहा है। आज स्थिति यह है कि मनुस्मृति वैदिक संस्कृति की सबसे अधिक विवादित पुस्तकों में है। पूरा का पूरा दलित आन्दोलन ‘ मनुवाद ‘ के विरोध पर ही खड़ा हुआ है। ध्यान देने वाली बात यह है कि मनु की निंदा करने वाले ज्यादातर लोगों ने मनुस्मृति को कभी गंभीरता से पढ़ा ही नहीं बल्कि दूसरों से केवल सुना भर है या उनके द्वारा दिखाये गये कुछ पंक्तियों पर ही भरोसा कर के अपनी एक सोच बना चुके हैं।
दूसरी ओर जातीय घमंड में चूर कुछ लोगों के लिए मनुस्मृति एक ऐसा धार्मिक ग्रंथ है जो उन्हें उच्च वर्ग में नहीं जन्में लोगों के प्रति सही व्यवहार नहीं करने का अधिकार और अनुमति देता है। ऐसे लोग मनुस्मृति से कुछ गलत और भ्रष्ट श्लोकों का हवाला देकर जातिप्रथा को उचित बताते हैं पर स्वयं की अनुकूलता और स्वार्थ के लिए यह भूलते हैं कि वह जो कह रहे हैं उनके बिलकुल विपरीत भी अनेक श्लोक हैं।

मनुस्मृति पर लगाये जाने वाले तीन प्रमुख आरोप :
१. मनु ने जन्म के आधार पर जातिप्रथा का निर्माण किया।
२. मनु ने शूद्रों के लिए कठोर दंड का विधान किया और ऊँची जाति खासकर ब्राह्मणों के लिए विशेष प्रावधान रखे।
३. मनु नारी का विरोधी था और उनका तिरस्कार करता था। उसने स्त्रियों के लिए पुरुषों से कम अधिकार का विधान किया।
आइये अब मनुस्मृति के साक्ष्यों पर ही हम इन आक्षेपों की समीक्षा करें।
मनुस्मृति और जाति व्यवस्था :
मनुस्मृति उस काल की है जब जन्म आधारित जाति व्यवस्था के विचार का भी कोई अस्तित्व नहीं था। अत: मनुस्मृति जन्मना समाज व्यवस्था का कहीं भी समर्थन नहीं करती। महर्षि मनु ने मनुष्य के गुण- कर्म – स्वभाव पर आधारित समाज व्यवस्था की रचना कर के वेदों में परमात्मा द्वारा दिए गए आदेश का ही पालन किया है (देखें – ऋग्वेद-१०.१०.११-१२, यजुर्वेद-३१.१०-११, अथर्ववेद-१९.६.५-६)।
यह वर्ण व्यवस्था वर्ण शब्द “वृञ” धातु से बनता है जिसका मतलब है चयन या चुनना।
मनुस्मृति में वर्ण व्यवस्था बतायी गयी है जाति व्यवस्था नहीं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि मनुस्मृति के प्रथम अध्याय में कहीं भी जाति या गोत्र शब्द ही नहीं है बल्कि वहां चार वर्णों की उत्पत्ति का वर्णन है। यदि जाति या गोत्र का इतना ही महत्त्व होता तो मनु इसका उल्लेख अवश्य करते कि कौनसी जाति ब्राह्मणों से संबंधित है, कौनसी क्षत्रियों से, कौनसी वैश्यों और शूद्रों से।
इस का मतलब हुआ कि स्वयं को जन्म से ब्राह्मण या उच्च जाति का मानने वालों के पास इसका कोई प्रमाण नहीं है कि वे सभ्यता के आरंभ से ही उँची जाति के थे। ज्यादा से ज्यादा वे इतना बता सकते हैं कि कुछ पीढ़ियों पहले से उनके पूर्वज स्वयं को ऊँची जाति का कहलाते आए हैं। जब वह यह साबित नहीं कर सकते तो उनको यह कहने का क्या अधिकार है कि आज जिन्हें जन्मना शूद्र माना जाता है, वह कुछ पीढ़ियों पहले ब्राह्मण नहीं थे ? और स्वयं जो अपने को ऊँची जाति का कहते हैं वे कुछ पीढ़ियों पहले शूद्र नहीं थे ?
मनुस्मृति ३.१०९ में साफ़ कहा है कि अपने गोत्र या कुल की दुहाई देकर भोजन करने वाले को स्वयं का उगलकर खाने वाला माना जाए। अतः मनुस्मृति के अनुसार जो ऊँची जाति , वाले अपने गोत्र या वंश का हवाला देकर स्वयं को बड़ा कहते हैं और मान-सम्मान की अपेक्षा रखते हैं उन्हें तिरस्कृत किया जाना चाहिए ।
मनुस्मृति २. १३६: धनी होना, बांधव होना, आयु में बड़े होना, श्रेष्ठ कर्म का होना और विद्वत्ता यह पाँच सम्मान पाने के प्रथम मानदंड हैं। इन में कहीं भी कुल, जाति, गोत्र या वंश को सम्मान का मानदंड नहीं माना गया है।, महर्षि मनु वर्णव्यवस्था के समर्थक थे लेकिन वे जन्म
आधारित वर्ण व्यवस्था के नहीं बल्कि कर्म आधरित
वर्ण व्यवस्था के समर्थक थे जो की मनुस्मृति के निम्न
श्लोकों से पता चलता है :-
मनुस्मृति १०:६५- शूद्रो ब्राह्मणात् एति,ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।
क्षत्रियात् जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात्तथैव च।।
गुण,कर्म योग्यता के आधार पर ब्राह्मण,शूद्र,बन
जाता है और शूद्र ब्राह्मण। इसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य भी अपने वर्ण बदल सकते हैं।
मनुस्मृति ९.३३५: शरीर और मन से शुद्ध- पवित्र रहने वाला, उत्कृष्ट लोगों के सानिध्य में रहने वाला,मधुरभाषी, अहंकार से रहित, अपने से उत्कृष्ट वर्ण वालों की सेवा करने वाला शूद्र भी उत्तम ब्रह्म जन्म और द्विज वर्ण को प्राप्त कर लेता है।
मनुस्मृति के अनेक श्लोक कहते हैं कि उच्च वर्ण का व्यक्ति भी यदि श्रेष्ट कर्म नहीं करता, तो शूद्र (अशिक्षित) बन जाता है।
उदाहरण-
२.१०३: जो मनुष्य नित्य प्रात: और सांय ईश्वर आराधना नहीं करता उसको शूद्र समझना चाहिए।
२.१७२: जब तक व्यक्ति वेदों की शिक्षाओं में दीक्षित नहीं होता वह शूद्र के ही समान है।
४.२४५ : ब्राह्मण- वर्णस्थ व्यक्ति श्रेष्ठ-अति श्रेष्ट व्यक्तियों का संग करते हुए और नीच-नीचतर व्यक्तियों का संग छोड़कर अधिक श्रेष्ठ बनता जाता है। इसके विपरीत आचरण से पतित होकर वह शूद्र बन जाता है। अतः स्पष्ट है कि ब्राह्मण उत्तम कर्म करने वाले विद्वान व्यक्ति को कहते हैं और शूद्र का अर्थ अशिक्षित कर्म करने वाला व्यक्ति है। इसका किसी भी तरह जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं है।
२.१६८: जो ब्राह्मण,क्षत्रिय या वैश्य वेदों का अध्ययन और पालन छोड़कर अन्य विषयों में ही परिश्रम करता है, वह शूद्र बन जाता है। अतःमनुस्मृति के अनुसार आज भारत में वे सारे लोग जो भ्रष्टाचार, जातिवाद, स्वार्थ साधना, अन्धविश्वास, विवेकहीनता, लिंग-भेद, चापलूसी, अनैतिकता इत्यादि में लिप्त हैं – वे सभी शूद्र हैं।
२ .१२६: भले ही कोई ब्राह्मण हो, लेकिन अगर वह अभिवादन का शिष्टता से उत्तर देना नहीं जानता तो वह शूद्र (अशिक्षित व्यक्ति) है।
शूद्र भी पढ़ा सकते हैं :
शूद्र भले ही अशिक्षित हों तब भी उनसे कौशल और उनका विशेष ज्ञान प्राप्त किया जाना चाहिए।
२.२३८: अपने से न्यून व्यक्ति से भी विद्या को ग्रहण करना चाहिए और नीच कुल में जन्मी उत्तम स्त्री को भी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लेना चाहिए।
२.२४१ : आवश्यकता पड़ने पर अ-ब्राह्मण से भी विद्या प्राप्त की जा सकती है और शिष्यों को पढ़ाने के दायित्व का पालन वह गुरु जब तक निर्देश दिया गया हो तब तक करे।
ब्राह्मणत्व का आधार कर्म :
मनु की वर्ण व्यवस्था जन्म से ही कोई वर्ण नहीं मानती।
मनुस्मृति के अनुसार माता- पिता को बच्चों के बाल्यकाल में ही उनकी रूचि और प्रवृत्ति को पहचान कर ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य वर्ण का ज्ञान और प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए भेज देना चाहिए।
कई ब्राह्मण माता-पिता अपने बच्चों को ब्राह्मण ही बनाना चाहते हैं परंतु इस के लिए व्यक्ति में ब्रह्मणोचित गुण, कर्म,स्वभाव का होना अति आवश्यक है। ब्राह्मण वर्ण में जन्म लेने मात्र से ही कोई ब्राह्मण नहीं बन जाता, जब तक कि उसकी योग्यता, ज्ञान और कर्म ब्रह्मणोचित न हों।
२.१५७ : जैसे लकड़ी से बना हाथी और चमड़े का बनाया हुआ हरिण सिर्फ़ नाम के लिए ही हाथी और हरिण कहे जाते हैं वैसे ही बिना पढ़ा ब्राह्मण नाममात्र का ही ब्राह्मण होता है।
२.२८: पढने-पढ़ाने से, चिंतन-मनन करने से, ब्रह्मचर्य,
अनुशासन, सत्यभाषण आदि व्रतों का पालन करने से, परोपकार आदि सत्कर्म करने से, वेद, विज्ञान आदि पढ़ने से, कर्तव्य का पालन करने से, दान करने से और आदर्शों के प्रति समर्पित रहने से मनुष्य का यह शरीर ब्राह्मण किया जा सकता है।
शिक्षा ही वास्तविक जन्म :
मनु के अनुसार मनुष्य का वास्तविक जन्म विद्या प्राप्ति के उपरांत ही होता है। जन्मतः प्रत्येक मनुष्य शूद्र या अशिक्षित है। ज्ञान और संस्कारों से स्वयं को परिष्कृत कर योग्यता हासिल कर लेने पर ही उसका दूसरा जन्म होता है और वह द्विज कहलाता है। शिक्षा प्राप्ति में असमर्थ रहने वाले शूद्र ही रह जाते हैं।
२.१४८ : वेदों में पारंगत आचार्य द्वारा शिष्य को गायत्री मंत्र की दीक्षा देने के उपरांत ही उसका वास्तविक मनुष्य जन्म होता है। ज्ञानरुपी जन्म में दीक्षित होकर मनुष्य मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। यही मनुष्य का वास्तविक उद्देश्य है। सुशिक्षा के बिना मनुष्य ‘ मनुष्य’ नहीं बनता।
इसलिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य होने की बात तो छोड़ो जब तक मनुष्य अच्छी तरह शिक्षित नहीं होगा तब तक उसे मनुष्य भी नहीं माना जाएगा।
२.१४७ : माता- पिता से उत्पन्न संतान का माता के गर्भ से प्राप्त जन्म साधारण जन्म है। वास्तविक जन्म तो शिक्षा पूर्ण कर लेने के उपरांत ही होता है। अत: अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए कुल का नाम आगे धरना
मनु के अनुसार अत्यंत मूर्खतापूर्ण कृत्य है।
१०.४: ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, ये तीन वर्ण विद्याध्ययन से दूसरा जन्म प्राप्त करते हैं। विद्याध्ययन न कर पाने वाला शूद्र, चौथा वर्ण है। इन चार वर्णों के अतिरिक्त आर्यों या मनुष्यों में पांचवा कोई वर्ण नहीं है।
इस का मतलब है कि अगर कोई अपनी शिक्षा पूर्ण नहीं कर पाया तो वह दुष्ट नहीं हो जाता। उस के कर्म यदि भले हैं तो वह अच्छा इन्सान कहा जाएगा। और अगर वह शिक्षा भी पूरी कर ले तो वह भी द्विज ही गिना जाएगा।अत: शूद्र मात्र एक विशेषण है, किसी जाति विशेष का नाम नहीं।
‘नीच’ कुल में जन्में व्यक्ति का तिरस्कार नहीं :
किसी व्यक्ति का जन्म यदि ऐसे कुल में हुआ हो, जो समाज में आर्थिक या अन्य दृष्टि से पनप न पाया हो तो उस व्यक्ति को केवल कुल के कारण पिछड़ना न पड़े और वह अपनी प्रगति से वंचित न रह जाए, इसके लिए भी महर्षि मनु ने नियम निर्धारित किए हैं।
४.१४१: अपंग, अशिक्षित, बड़ी आयु वाले, रूप और धन से रहित या निचले कुल वाले, इन को आदर और अधिकार से वंचित न करें। क्योंकि यह किसी व्यक्ति की परख के मापदण्ड नहीं हैं।
प्राचीन इतिहास में वर्ण परिवर्तन के उदाहरण :
ब्राह्मण, क्षत्रिय,वैश्य और शूद्र वर्ण की सैद्धांतिक अवधारणा गुणों के आधार पर है,जन्म के आधार पर नहीं। यह बात सिर्फ़ कहने के लिए ही नहीं है, प्राचीन समय में इस का व्यवहार में चलन था। जब से इस गुणों पर आधारित वैज्ञानिक व्यवस्था को हमारे दिग्भ्रमित पुरखों ने मूर्खतापूर्ण जन्मना व्यवस्था में बदला है,तब से ही हिन्दू समाज पर आफत आ पड़ी है जिस का सामना आज भी कर रहें हैं।
वर्ण परिवर्तन के कुछ उदाहरण -
(a) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे। परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की। ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है।
(b) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे। जुआरी और हीन चरित्र भी थे। परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये। ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया।(ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)
(c) सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे
ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए।
(d) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र हो गए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। (विष्णु पुराण ४.१.१४)
यदि मिथ्या कथा के अनुसार शूद्रों के लिए तपस्या करना मना होता तो पृषध ये कैसे कर पाए?
(e) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए। पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया। (विष्णु पुराण ४.१.१३)
(f) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया।(विष्णु पुराण ४.२.२)
(g) आगे उन्हीं के वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए। (विष्णु पुराण ४.२.२)
(h) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए।
(i) विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने।
(j) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मण हुए। (विष्णु पुराण ४.३.५)
(k) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया।
(विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए। इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्य के उदाहरण हैं।
(l) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने।
(m) ब्राहम्ण ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपने कर्मों से राक्षस बना।
(n) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ।
(o) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे।
(p) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्र वर्ण अपनाया। विश्वामित्र
स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया।
(q) विदुर दासी पुत्र थे। तथापि वे ब्राह्मण हुए और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया।
(r) वत्स शूद्र कुल में उत्पन्न होकर भी ऋषि बने (ऐतरेय
ब्राह्मण २.१९) |
(s) मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोकों से भी पता चलता है कि कुछ क्षत्रिय जातियां, शूद्र बन गईं। वर्ण परिवर्तन की साक्षी देने वाले यह श्लोक मनुस्मृति में बहुत बाद के काल में मिलाए गए हैं।
इन परिवर्तित जातियों के नाम हैं – पौण्ड्रक, औड्र, द्रविड, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पल्हव, चीन, किरात, दरद, खश।
(t) महाभारत अनुसन्धान पर्व (३५.१७-१८) इसी सूची में कई अन्य नामों को भी शामिल करता है – मेकल,लाट, कान्वशिरा, शौण्डिक, दार्व, चौर, शबर, बर्बर।
(u) आज भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और दलितों में समान गोत्र मिलते हैं। इस से पता चलता है कि यह सब एक ही पूर्वज, एक ही कुल की संतान हैं षलेकिन कालांतर में वर्ण व्यवस्था को जन्मना बनाकर इसे गड़बड़ा दिया गया और यह लोग अनेक जातियों में बंट गए।
शूद्रों के प्रति आदर :
मनु परम मानवीय थे। वे जानते थे कि सभी शूद्र जानबूझ कर शिक्षा की उपेक्षा नहीं कर सकते। जो किसी भी कारण से जीवन के प्रथम पर्व में ज्ञान और शिक्षा से वंचित रह गया हो, उसे जीवन भर इसकी सज़ा न भुगतनी पड़े इसलिए वे समाज में शूद्रों के लिए उचित सम्मान का विधान करते हैं। मनुस्मृति में बाद के समयों में कुछ स्वार्थी तत्वों ने भले ही शूद्रों के प्रति अपमानसूचक शब्दों को जोड़ दिया हो, परन्तु मनुस्मृति
में कई स्थानों पर शूद्रों के लिए अत्यंत सम्मानजनक शब्द आए हैं। जिससे पता चलता है कि एक ही विचारधारा में परस्पर इतना विरोधाभास नहीं हो सकता। यानी मनुस्मृति को बाद के कालों में निजी स्वार्थों के लिए जरूर बदला गया था।
मनु की दृष्टी में ज्ञान और शिक्षा के अभाव में शूद्र समाज का सबसे अबोध घटक है, जो परिस्थितिवश भटक सकता है। अत: वे समाज को उसके प्रति अधिक सहृदयता और सहानुभूति रखने को कहते हैं।
कुछ और उदात्त उदाहरण देखें -
३.११२: शूद्र या वैश्य के अतिथि रूप में आ जाने पर, परिवार उन्हें सम्मान सहित भोजन कराए।
३.११६: अपने सेवकों (शूद्रों) को पहले भोजन कराने के बाद ही दंपत्ति भोजन करें।
२.१३७: धन, बंधू, कुल, आयु, कर्म, श्रेष्ट विद्या से संपन्न
व्यक्तियों के होते हुए भी वृद्ध शूद्र को पहले सम्मान दिया जाना चाहिए।
मनुस्मृति वेदों पर आधारित :
वेद ईश्वरीय ज्ञान है और सभी विद्याएँ उसी से निकली हैं। उन्हीं को आधार मानकर ऋषियों ने अन्य ग्रंथ बनाए। वेदों का स्थान और प्रमाणिकता सबसे ऊपर है अत:
अन्य सभी ग्रंथ स्मृति, ब्राह्मण, महाभारत, रामायण, गीता, उपनिषद, आयुर्वेद, नीतिशास्त्र, दर्शन इत्यादि को परखने की कसौटी वेद ही हैं। और जहां तक वे वेदानुकूल हैं वहीं तक मान्य हैं। यदि सनातनी ग्रंथों में कहीं वेदों के प्रतिकूल मानसिकता दिखाई देती है तो वो अवश्य ही निजी स्वार्थों के लिए बाद में जोड़ा गया है।
मनु भी वेदों को ही धर्म का मूल मानते थे (२.८-२.११)
२.८: विद्वान मनुष्य को अपने ज्ञान चक्षुओं से सब कुछ वेदों के अनुसार परखते हुए, कर्तव्य का पालन करना चाहिए।
इस से साफ़ है कि मनु के विचार, उनकी मूल रचना वेदानुकूल ही है और मनुस्मृति में वेद विरुद्ध मिलने वाली मान्यताएं प्रक्षिप्त मानी जानी चाहियें।
शूद्रों को भी वेद पढने और वैदिक संस्कार करने का अधिकार :
वेद में ईश्वर कहता है कि मेरा ज्ञान सबके लिए समान है चाहे पुरुष हो या नारी, ब्राह्मण हो या शूद्र सबको वेद पढ़ने और यज्ञ करने का अधिकार है |
देखें – यजुर्वेद २६.१, ऋग्वेद १०.५३.४, निरुक्त ३.८ इत्यादि और मनुस्मृति भी यही कहती है।
मनु ने शूद्रों को उपनयन ( विद्या आरंभ ) से वंचित नहीं रखा है। इसके विपरीत उपनयन से इंकार करने वाला ही शूद्र कहलाता है।
वेदों के ही अनुसार मनु शासकों के लिए विधान करते हैं कि वे शूद्रों का वेतन और भत्ता किसी भी परिस्थिति में न काटें ( ७.१२-१२६, ८.२१६)।
संक्षेप में -
मनु की वर्ण व्यवस्था पूरी तरह गुणवत्ता पर टिकी हुई है। प्रत्येक मनुष्य में चारों वर्ण हैं – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।, हिन्दू पौराणिक ग्रंथ तो यह मानते हैं कि आदमी प्रतिदिन इन चारों वर्णों या जातियों में भ्रमण करता है। वह सुबह उठता है तब अपनी साफ सफाई करता है। यह उसका शुद्र कर्म है। उसके बाद वह भक्ति भाव से भगवान का नाम लेता है और अपने परिवार के लोगों को समय समय पर शिक्षा तथा परामर्श देता है। यह ब्राहम्णोंत्व का प्रमाण है। उसके बाद वह अपने परिवार के लिये काम पर जाता है जोकि उसके वैश्य होने का प्रमाण है। रात्रि को वह अपने घर पर सोता है। तब उसके आश्रित एक सुरक्षा का अनुभव करते हैं। यह क्षत्रित्व का प्रमाण है। हिन्दू धर्म में जितने भी पौराणिक ग्रंथ हैं उनमें जन्म के आधार पर जाति का कहीं उल्लेख नहीं मिलता। ब्राह्म्ण सबसे श्रेष्ठ हैं-यह हम भी मानते हैं पर योग्यता के आधार पर न कि जन्म के आधार पर। संभव है कि बीच में कोई ऐसा काल आया हो जब इस वर्ण व्यवस्था को कुछ धूर्त लोगों ने आर्थिक आधार पर स्थाई जाति व्यवस्था के रूप में प्रचारित की। ताकि उनकी पीढ़ियों का वर्चस्व बना रहे। जैसा आज के समय में भी नेता चाहता है उसकी संतान नेता ही बने, अभिनेता चाहता है उसकी संतान अभिनेता ही बने।
परन्तु मनु ने ऐसा प्रयत्न किया है कि प्रत्येक मनुष्य में विद्यमान जो सबसे सशक्त वर्ण है – जैसे किसी में ब्राह्मणत्व ज्यादा है या किसी में क्षत्रियत्व, इत्यादि का विकास हो और यह विकास पूरे समाज के विकास में सहायक हो।
जन्मना जाति व्यवस्था को मान्य करने की प्रथा एक सभ्य समाज के लिए कलंक है और अत्यंत छल-कपट वाली, विकृत और झूठी व्यवस्था है।
मनुस्मृति से ऐसे सैंकड़ों श्लोक दिए जा सकते हैं, जिन्हें
जन्मना जातिवाद और लिंग-भेद के समर्थन में पेश किया जाता है और यही सोचने वाली बात है कि मनुस्मृति में जन्मना जातिवाद के विरोधी और समर्थक दोनों तरह के श्लोक आखिर कैसे आ गये ? आज मिलने वाली मनुस्मृति में बड़ी मात्रा में मनमाने प्रक्षेप पाए जाते हैं, जो बहुत बाद के काल में मिलाए गए। वर्तमान मनुस्मृति लगभग आधी नकली है।
सिर्फ़ मनुस्मृति ही प्रक्षिप्त नहीं है। वेदों को छोड़ कर लगभग अन्य सभी अन्य ग्रंथ एवं सभी सम्प्रदायों के ग्रंथों में स्वाभाविकता से परिवर्तन, मिलावट या हटावट की जा सकती है जिनमें रामायण, महाभारत, बाइबल,
कुरान इत्यादि भी शामिल हैं। भविष्य पुराण में तो मिलावट का सिलसिला छपाई के आने तक चलता रहा।
आज रामायण के तीन संस्करण मिलते हैं। महाभारत भी अत्यधिक प्रक्षिप्त हो चुका ग्रंथ है।
मूल बाइबल जिसे कभी किसी ने देखा हो वह आज अस्तित्व में ही नहीं है। हमने उसके अनुवाद के अनुवाद के अनुवाद ही देखे हैं। इसलिए इस में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि मनुस्मृति जो सामाजिक व्यवस्थाओं पर सबसे प्राचीन ग्रंथ है उसमें भी अनेक धूर्त एवं कपटी लोगों ने परिवर्तन किए हों। यह सम्भावना इसलिए भी अधिक है कि मनुस्मृति दैनिक जीवन को, पूरे समाज को और राष्ट्र की राजनीति को प्रभावित करने वाला ग्रंथ रहा है। इसलिए धूर्तों और मक्कारों के लिए मनु स्मृति में मिलावट करने के बहुत सारे कारण थे।
डा. सुरेन्द्र कुमार ने मनु स्मृति का विस्तृत और गहन अध्ययन किया है। जिसमें प्रत्येक श्लोक का भिन्न- भिन्न रीतियों से परीक्षण और पृथक्करण किया है ताकि मिलावटी श्लोकों को अलग से जांचा जा सके। उन्होंने मनुस्मृति के २६८५ में से १४७१ श्लोक मिलावटी पाए हैं।
डा.सुरेन्द्र कुमार ही नहीं बल्कि बहुत से पाश्चात्य विद्वान जैसे मैकडोनल, कीथ, बुलहर इत्यादि भी मनुस्मृति में मिलावट मानते हैं।
डा. अम्बेडकर भी प्राचीन ग्रंथों में मिलावट स्वीकार करते थे। मनुस्मृति के परस्पर विरोधी, असंगत श्लोकों को उन्होंने कई स्थानों पर दिखाया भी था। वे जानते थे कि मनुस्मृति में कहां-कहां प्रक्षेप हैं। लेकिन मिलावट चाहे कहीं से भी हुई हो जिस पुस्तक में दलित वर्ग के लिए इतनी भेदभाव की बातें जोड़ दी गयीं हैं कि उन्होनें उसका विरोध करना ही उचित समझा। केवल वे ही क्यों कोई भी दलित या समानतावादी अथवा वेदों को मानने वाला कोई भी बौद्धिक मनुष्य होता तो यही करता।
महर्षि दयानंद ने जिस समाज की रचना का सपना देखा था वह महर्षि मनु की वर्ण व्यवस्था के अनुसार ही था और उन्होंने मिलावटी हिस्सों को छोड़ कर अपने ग्रंथों में सर्वाधिक प्रमाण (५१४ श्लोक) मनुस्मृति से ही दिए।
निष्कर्ष :
मनुस्मृति में बहुत अधिक मात्रा में मिलावट हुई है परंतु असली मनुस्मृति अत्युत्तम मानवीय कृति है। मूल मनुस्मृति वेदों की मान्यताओं पर आधारित है।
महर्षि मनु जाति, जन्म, लिंग, क्षेत्र, मत- सम्प्रदाय, इत्यादि सबसे मुक्त सत्य धर्म का पालन करने के लिए कहते हैं
संदर्भ- डा. सुरेन्द्र कुमार, पं.गंगाप्रसाद उपाध्याय और स्वामी दयानंद सरस्वती के कार्य।
अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम।
परोपकारः पुण्याय पापाय परपीड़नम्। ------ अर्थात ,
वेदव्यास के 18 पुराणों में दो वचन (श्रेष्ठ) हैं, परोपकार
करना एक पुण्य है और दूसरों को पीड़ा देना पाप है।
यदि 67 वर्षों में वेद भी पढ़ा दिए गए होते तो जाति के आधार पर समाज को तोड़कर के जहर की खेती कर अपना उल्लू सीधा करने वालों की धार कुंद की जा सकती थी । आज भी विश्वविद्यालयों में मनुस्मृति पाठ्यपुस्तक के रूप में पढाई जाती है। अंत में यही कहना चाहूँगा की प्रक्षेपो के आधार पर मनु को गाली न दें इसमें महाराज मनु का कोई दोष नही है। सबसे अच्छा होगा की मनुस्मर्ती से बहुत बाद के काल में मिला दि...

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